सवाल उठता है कि जिन नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ भारत ही नहीं दुनिया के स्तर पर इतना प्रचार हुआ, उनको अमरीका ने वीज़ा नहीं दिया और संसद की कोई
बहस नरेंद्र मोदी और गुजरात के दंगों के बिना नहीं पूरी हुई, उसके बावजूद मोदी को इतना बड़ा जन समर्थन क्यों मिला?
मोदी के एक और जीवनीकार और किताब 'सेंटरस्टेज- इनसाइड मोदी मॉडल ऑफ़ गवर्नेंस' के लेखक उदय माहूरकर बताते हैं, "मोदी को ब्रांड मोदी बनाने में ख़ुद नरेंद्र दामोदर मोदी ने काफ़ी मेहनत की है. बात-बात पर उंगलियों से वी का निशान बना देना, आत्मविश्वास या कहा जाए अकड़ से भरी चाल, उनके 'ट्रेडमार्क' आधी आस्तीन के कुर्ते और तंग चूड़ीदार पाजामें - उनकी हर अदा सोचसमझ कर बनाई गई है."
मोदी की जो तस्वीर दुनिया के सामने पेश की जाती है वो है एक आधुनिक व्यक्ति की है जो लैप-टॉप इस्तेमाल करता है, उसके हाथ में एक वित्तीय अख़बार और 'डीएसएलआर' कैमरा है. वो कभी ओबामा की जीवनी पढ़ रहे हैं तो कभी ट्रैक सूट पहने हुए हैं तो कभी उनके सिर पर 'काऊ-ब्वॉय' हैट लगी हुई है.
मोदी एक 'टिपिकल' 'समाजवादी' राजनेता की तरह नहीं हैं जो मुड़ा-तुड़ा खद्दर पहनता है और न ही वो ख़ाकी पैंट पहनने वाले और हाथ में लाठी लिए हुए आरएसएस प्रचारक हैं.
वो 'बलगारी' का मंहगा रीमलेस चश्मा पहनते हैं. उनकी जेब में अक्सर 'मों-ब्लाँ' पेन रहता है और वो हाथ में चमड़े के स्ट्रैप की लक्जरी 'मोवाडो' घड़ी बाँधते हैं.
वो कभी भी ठंडा पानी नहीं पीते, ताकि उनकी आवाज़ पर असर न पड़े. वो हमेशा जेब में एक कंघा रखते हैं. उड़े हुए बेतरतीब बालों के साथ उनकी आज तक एक भी तस्वीर नहीं खींची गई है.
वो हर रोज़ तड़के साढ़े चार बजे उठते हैं. योग करते हैं और अपने आई-पैड पर समाचार पत्र पढ़ते हैं. उन्होंने पिछले दो दशकों में एक भी छुट्टी नहीं ली है.
मशहूर पत्रकार विनोद के जोस 'कारवाँ' पत्रिका में अपने लेख 'द एंपरर अनक्राउंड: द राइज़ ऑफ़ नरेंद्र मोदी' में लिखते हैं, "मोदी को नाटकीयता पर पूरी महारत हासिल है. वो मुखर हैं, दृढ़ हैं और आत्मविश्वास से लबरेज़ हैं. वो उस तरह के नेता हैं जो अपने अनुयायियों को ये यकीन दिला सकते हैं कि उनके रहते हर चीज़ काबू में रहेगी."
"वो बिना कागज़ का सहारा लिए लोगों की आँख में देख कर बोलते हैं. उनका भाषण शुरू होते ही लोगों में सन्नाटा छा जाता है. लोग अपने मोबाइल से छेड़-छाड़ करना बंद कर देते हैं और कई लोगों के तो मुंह खुले के खुले रह जाते हैं."
मशहूर समाजशास्त्री प्रोफ़ेसर आशीष नंदी नरेंद्र मोदी की शख़्सियत के लिए 'प्योरिटैनिकल रिजिडिटी' शब्द का इस्तेमाल किया है.
इसको विस्तार से समझाते हुए वो लिखते हैं, "वो कोई सिनेमा नहीं देखते. न शराब पीते हैं और न ही सिगरेट पीते हैं. वो मसालेदार खाने से परहेज़ करते हैं. ज़रूरत पड़ने पर साधारण खिचड़ी खाते हैं, वो भी अकेले. ख़ास मौक़ों पर वो व्रत रखते हैं, ख़ासतौर से नवरात्र के मौक़े पर जब वो दिन में सिर्फ़ नीबू पानी या सिर्फ़ एक प्याला चाय पीते हैं."
नंदी आगे लिखते हैं, "मोदी अकेले रहते हैं और अपनी माँ और चार भाइयों और बहन से मामूली संपर्क रखते हैं. हालाँकि एक-आध अवसरों पर उन्हें अपनी माँ से आशीर्वाद लेते और अपने सरकारी निवास में उन्हें 'व्हील चेयर' पर घुमाते देखा गया है. वो अपने जीवन के इस पक्ष को सच्चरित्रता के तौर पर दिखाते हैं."
एक बार हिमाचल प्रदेश में हमीरपुर में एक चुनाव सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, "मेरे कोई पारिवारिक संबंध नहीं हैं. मैं अकेला हूँ. मैं किस के लिए बेईमानी करूंगा? मेरा दिमाग़ और शरीर पूरी तरह से राष्ट्र को समर्पित है."
मोदी वैसे तो सार्वजनिक रूप से हर तरफ़ स्त्री शक्ति की तारीफ़ करते नज़र आते हैं, लेकिन एक बार उन्होंने बांगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद की तारीफ़ करते हुए कहा था कि महिला होने के बावजूद उन्होंने बहुत हिम्मत से आतंकवाद का मुक़ाबला किया है.
सोशल मीडियो में 'हैशटैग' 'डिसपाइट बींग वुमेन' 'ट्रेंड' करने लगा, लेकिन मोदी पर इसका कोई असर नहीं हुआ.
'वॉशिंगटन पोस्ट' ने ज़रूर एक सुर्ख़ी लगाई, 'इंडियाज़ मोदी डेलिवर्ड द वर्ल्ड्स वर्स्ट कॉम्प्लीमेंट.'
उनकी प्रतिद्वंदी कांग्रेस पार्टी की विश्वसनीयता तार-तार हो गई थी और उन्होंने देश के युवाओं के सामने एक बहुत बड़ा वादा किया था, "एक साल में 1 करोड़ नौकरियाँ देने का, या दूसरे शब्दों में कहा जाए हर महीने 840000 नौकरियाँ पैदा करने का."
मोदी के सबसे बड़े समर्थक भी मानेंगे कि वो उस वादे के दूर दूर तक भी नहीं पहुंच पाए हैं.
एक सौ 30 करोड़ की आबादी वाले देश में जहाँ शिक्षा का स्तर लगातार बढ़ रहा है, हर महीने कम से कम 5 लाख नई नौकरियों की दरकार है. इस लक्ष्य तक न पहुंच पाना मोदी सरकार की सबसे बड़ी असफलता कही जा सकती है.
हालाँकि हाल की तिमाही में भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर 6.6 फ़ीसदी रही है, जो कई विकसित देशों की विकास दर से अभी भी अधिक है, लेकिन तब भी ये पिछले पाँच वर्षों की सबसे कम विकास दर है.
सिर्फ़ यही नहीं देश का किसान भी मोदी सरकार से खुश नहीं है.
बहुत अधिक दिन नहीं हुए जब हज़ारों किसानों ने अपना विरोध जताने के लिए देश की राजधानी की तरफ़ 'मार्च' किया था.
पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनाव में मोदी के ज़ोरशोर से प्रचार करने के वावजूद भारतीय जनता पार्टी को तीन राज्यों में सत्ता गंवानी पड़ी थी और पहली बार ये संदेह उठने लगा था कि मोदी आगामी लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी की नैया पार लगा पाएंगे भी या नहीं.
लेकिन कश्मीर में एक चरमपंथी हमले और पाकिस्तान के साथ एक सप्ताह तक चली तनातनी ने मोदी के समर्थन में आ रहे ढलान को रोक दिया है.
भारतीय मतदाताओं को इस बात से मतलब नहीं है कि पाकिस्तान में चरमपंथी ठिकानों पर भारतीय वायुसेना के हमले संभवत: अपना लक्ष्य चूक गए हों या भारत का एक युद्धक जहाज़ को पाकिस्तान ने गिरा दिया हो.
उनके लिए महत्वपूर्ण ये है कि उनके देश को निशाना बनाया गया और मोदी ने उसका तुरंत जवाब दिया.
मोदी ने जब जब ये कहा है कि 'अगर वो सात समुंदर के नीचे भी चले जाएंगे, तो मैं उन्हें ढ़ूढ़ निकालूँगा. हिसाब बराबर करना मेरी फ़ितरत रही है,' तालियों से उनका स्वागत हुआ.
'कार्नेगी इनडाउमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस' के निदेशक मिलन वैष्णव कहते हैं, "पाकिस्तान संकट ने नरेंद्र मोदी को एक स्वर्णिम अवसर प्रदान किया है. राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा ही ऐसा है कि इसमें तुरंत निर्णय लेने और नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता पर लोगों का सबसे अधिक ध्यान जाता है. मोदी ये बताने में सफल रहे हैं कि उनमें इन गुणों की कमी नहीं है चाहे ये सही हो या ग़लत."
'ब्राउन विश्वविद्यालय' में 'सेंटर फ़ार 'कंटेंपोरेरी साउथ एशिया' के निदेशक आशुतोष वार्ष्णेय का भी मानना है, "ऐसा लगता है कि मोदी दोबारा लड़ाई में वापस लौट आए हैं. लेकिन ये कहानी फिर बदल भी सकती है, क्योंकि कहीं न कहीं लोगों में मोदी के खिलाफ़ असंतोष दूर नहीं हुआ है और अभी तो चुनाव प्रचार शुरू ही हुआ है. लेकिन ये मान लेना भी नादानी होगी कि मोदी ने अपने तरकश के सारे तीर ख़त्म कर लिए हैं."
आगामी लोकसभा चुनाव में सिर्फ़ और सिर्फ़ नरेंद्र मोदी ही 'एजेंडा' हैं. देखना ये है कि भारतीय मतदाता उन्हें 'थम्स-अप' करते हैं या नहीं, जिसको करने का ख़ुद उन्हें बहुत शौक रहा है.
मोदी के एक और जीवनीकार और किताब 'सेंटरस्टेज- इनसाइड मोदी मॉडल ऑफ़ गवर्नेंस' के लेखक उदय माहूरकर बताते हैं, "मोदी को ब्रांड मोदी बनाने में ख़ुद नरेंद्र दामोदर मोदी ने काफ़ी मेहनत की है. बात-बात पर उंगलियों से वी का निशान बना देना, आत्मविश्वास या कहा जाए अकड़ से भरी चाल, उनके 'ट्रेडमार्क' आधी आस्तीन के कुर्ते और तंग चूड़ीदार पाजामें - उनकी हर अदा सोचसमझ कर बनाई गई है."
मोदी की जो तस्वीर दुनिया के सामने पेश की जाती है वो है एक आधुनिक व्यक्ति की है जो लैप-टॉप इस्तेमाल करता है, उसके हाथ में एक वित्तीय अख़बार और 'डीएसएलआर' कैमरा है. वो कभी ओबामा की जीवनी पढ़ रहे हैं तो कभी ट्रैक सूट पहने हुए हैं तो कभी उनके सिर पर 'काऊ-ब्वॉय' हैट लगी हुई है.
मोदी एक 'टिपिकल' 'समाजवादी' राजनेता की तरह नहीं हैं जो मुड़ा-तुड़ा खद्दर पहनता है और न ही वो ख़ाकी पैंट पहनने वाले और हाथ में लाठी लिए हुए आरएसएस प्रचारक हैं.
वो 'बलगारी' का मंहगा रीमलेस चश्मा पहनते हैं. उनकी जेब में अक्सर 'मों-ब्लाँ' पेन रहता है और वो हाथ में चमड़े के स्ट्रैप की लक्जरी 'मोवाडो' घड़ी बाँधते हैं.
वो कभी भी ठंडा पानी नहीं पीते, ताकि उनकी आवाज़ पर असर न पड़े. वो हमेशा जेब में एक कंघा रखते हैं. उड़े हुए बेतरतीब बालों के साथ उनकी आज तक एक भी तस्वीर नहीं खींची गई है.
वो हर रोज़ तड़के साढ़े चार बजे उठते हैं. योग करते हैं और अपने आई-पैड पर समाचार पत्र पढ़ते हैं. उन्होंने पिछले दो दशकों में एक भी छुट्टी नहीं ली है.
मशहूर पत्रकार विनोद के जोस 'कारवाँ' पत्रिका में अपने लेख 'द एंपरर अनक्राउंड: द राइज़ ऑफ़ नरेंद्र मोदी' में लिखते हैं, "मोदी को नाटकीयता पर पूरी महारत हासिल है. वो मुखर हैं, दृढ़ हैं और आत्मविश्वास से लबरेज़ हैं. वो उस तरह के नेता हैं जो अपने अनुयायियों को ये यकीन दिला सकते हैं कि उनके रहते हर चीज़ काबू में रहेगी."
"वो बिना कागज़ का सहारा लिए लोगों की आँख में देख कर बोलते हैं. उनका भाषण शुरू होते ही लोगों में सन्नाटा छा जाता है. लोग अपने मोबाइल से छेड़-छाड़ करना बंद कर देते हैं और कई लोगों के तो मुंह खुले के खुले रह जाते हैं."
मशहूर समाजशास्त्री प्रोफ़ेसर आशीष नंदी नरेंद्र मोदी की शख़्सियत के लिए 'प्योरिटैनिकल रिजिडिटी' शब्द का इस्तेमाल किया है.
इसको विस्तार से समझाते हुए वो लिखते हैं, "वो कोई सिनेमा नहीं देखते. न शराब पीते हैं और न ही सिगरेट पीते हैं. वो मसालेदार खाने से परहेज़ करते हैं. ज़रूरत पड़ने पर साधारण खिचड़ी खाते हैं, वो भी अकेले. ख़ास मौक़ों पर वो व्रत रखते हैं, ख़ासतौर से नवरात्र के मौक़े पर जब वो दिन में सिर्फ़ नीबू पानी या सिर्फ़ एक प्याला चाय पीते हैं."
नंदी आगे लिखते हैं, "मोदी अकेले रहते हैं और अपनी माँ और चार भाइयों और बहन से मामूली संपर्क रखते हैं. हालाँकि एक-आध अवसरों पर उन्हें अपनी माँ से आशीर्वाद लेते और अपने सरकारी निवास में उन्हें 'व्हील चेयर' पर घुमाते देखा गया है. वो अपने जीवन के इस पक्ष को सच्चरित्रता के तौर पर दिखाते हैं."
एक बार हिमाचल प्रदेश में हमीरपुर में एक चुनाव सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, "मेरे कोई पारिवारिक संबंध नहीं हैं. मैं अकेला हूँ. मैं किस के लिए बेईमानी करूंगा? मेरा दिमाग़ और शरीर पूरी तरह से राष्ट्र को समर्पित है."
मोदी वैसे तो सार्वजनिक रूप से हर तरफ़ स्त्री शक्ति की तारीफ़ करते नज़र आते हैं, लेकिन एक बार उन्होंने बांगलादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद की तारीफ़ करते हुए कहा था कि महिला होने के बावजूद उन्होंने बहुत हिम्मत से आतंकवाद का मुक़ाबला किया है.
सोशल मीडियो में 'हैशटैग' 'डिसपाइट बींग वुमेन' 'ट्रेंड' करने लगा, लेकिन मोदी पर इसका कोई असर नहीं हुआ.
'वॉशिंगटन पोस्ट' ने ज़रूर एक सुर्ख़ी लगाई, 'इंडियाज़ मोदी डेलिवर्ड द वर्ल्ड्स वर्स्ट कॉम्प्लीमेंट.'
उनकी प्रतिद्वंदी कांग्रेस पार्टी की विश्वसनीयता तार-तार हो गई थी और उन्होंने देश के युवाओं के सामने एक बहुत बड़ा वादा किया था, "एक साल में 1 करोड़ नौकरियाँ देने का, या दूसरे शब्दों में कहा जाए हर महीने 840000 नौकरियाँ पैदा करने का."
मोदी के सबसे बड़े समर्थक भी मानेंगे कि वो उस वादे के दूर दूर तक भी नहीं पहुंच पाए हैं.
एक सौ 30 करोड़ की आबादी वाले देश में जहाँ शिक्षा का स्तर लगातार बढ़ रहा है, हर महीने कम से कम 5 लाख नई नौकरियों की दरकार है. इस लक्ष्य तक न पहुंच पाना मोदी सरकार की सबसे बड़ी असफलता कही जा सकती है.
हालाँकि हाल की तिमाही में भारत की अर्थव्यवस्था की विकास दर 6.6 फ़ीसदी रही है, जो कई विकसित देशों की विकास दर से अभी भी अधिक है, लेकिन तब भी ये पिछले पाँच वर्षों की सबसे कम विकास दर है.
सिर्फ़ यही नहीं देश का किसान भी मोदी सरकार से खुश नहीं है.
बहुत अधिक दिन नहीं हुए जब हज़ारों किसानों ने अपना विरोध जताने के लिए देश की राजधानी की तरफ़ 'मार्च' किया था.
पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनाव में मोदी के ज़ोरशोर से प्रचार करने के वावजूद भारतीय जनता पार्टी को तीन राज्यों में सत्ता गंवानी पड़ी थी और पहली बार ये संदेह उठने लगा था कि मोदी आगामी लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी की नैया पार लगा पाएंगे भी या नहीं.
लेकिन कश्मीर में एक चरमपंथी हमले और पाकिस्तान के साथ एक सप्ताह तक चली तनातनी ने मोदी के समर्थन में आ रहे ढलान को रोक दिया है.
भारतीय मतदाताओं को इस बात से मतलब नहीं है कि पाकिस्तान में चरमपंथी ठिकानों पर भारतीय वायुसेना के हमले संभवत: अपना लक्ष्य चूक गए हों या भारत का एक युद्धक जहाज़ को पाकिस्तान ने गिरा दिया हो.
उनके लिए महत्वपूर्ण ये है कि उनके देश को निशाना बनाया गया और मोदी ने उसका तुरंत जवाब दिया.
मोदी ने जब जब ये कहा है कि 'अगर वो सात समुंदर के नीचे भी चले जाएंगे, तो मैं उन्हें ढ़ूढ़ निकालूँगा. हिसाब बराबर करना मेरी फ़ितरत रही है,' तालियों से उनका स्वागत हुआ.
'कार्नेगी इनडाउमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस' के निदेशक मिलन वैष्णव कहते हैं, "पाकिस्तान संकट ने नरेंद्र मोदी को एक स्वर्णिम अवसर प्रदान किया है. राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा ही ऐसा है कि इसमें तुरंत निर्णय लेने और नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता पर लोगों का सबसे अधिक ध्यान जाता है. मोदी ये बताने में सफल रहे हैं कि उनमें इन गुणों की कमी नहीं है चाहे ये सही हो या ग़लत."
'ब्राउन विश्वविद्यालय' में 'सेंटर फ़ार 'कंटेंपोरेरी साउथ एशिया' के निदेशक आशुतोष वार्ष्णेय का भी मानना है, "ऐसा लगता है कि मोदी दोबारा लड़ाई में वापस लौट आए हैं. लेकिन ये कहानी फिर बदल भी सकती है, क्योंकि कहीं न कहीं लोगों में मोदी के खिलाफ़ असंतोष दूर नहीं हुआ है और अभी तो चुनाव प्रचार शुरू ही हुआ है. लेकिन ये मान लेना भी नादानी होगी कि मोदी ने अपने तरकश के सारे तीर ख़त्म कर लिए हैं."
आगामी लोकसभा चुनाव में सिर्फ़ और सिर्फ़ नरेंद्र मोदी ही 'एजेंडा' हैं. देखना ये है कि भारतीय मतदाता उन्हें 'थम्स-अप' करते हैं या नहीं, जिसको करने का ख़ुद उन्हें बहुत शौक रहा है.
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